दाने दाने पे लिखा है, खाने वाले का नाम

आज सुबह मैं रामबाबू कैंटीन नाश्ता करने गया, जो कि सेक्टर-3 में स्थित है (गणेश मंदिर के बाजू में)। अपनी भूख को देखते हुए सिर्फ एक इडली और एक सादा दोसा मंगवाया। अपनी प्लेट लेके बैठ ही रहा था, कि कुछ बच्चे वहाँ आके बैठने लगे । सब अलग-अलग उम्र के थे । उनको लेकर उनका बड़ा भाई आया था । मैं भी उनके पास ही बैठ गया । चारों बच्चों ने पूरी मंगवायी और बड़े चाव से खाने  लगे । उनको देख मेरा चंचल मन मुझे अपने बचपन की सुनहरी यादों में ले गया ।

जब में उन बच्चों की उम्र का था, शायद ही कभी हम ऐसे बाहर जाकर खाया करते थे। जो भी मन करता था, मम्मी घर में ही उसे स्वादिष्ट बना देती और हम पेट भर और जी भर खा कर तृप्त हो जाते । बिरले ऐसे मौके होते, जब पापा कुछ बाज़ार से ले आते, जो हमें खाना होता था । लेकिन आज कल शायद बाहर जाकर खाना खा लेना, शायद एक आम बात हो चुकी है । 

खाते खाते पता नहीं कैसे भूख गायब सी हो गयी। जितना थाली में था, वो भी खत्म नहीं कर पाया। शायद उस बचपन की सैर ने और माँ के हाथ के उन पकवानों से मेरा मन और पेट दोनों भर चुका था । पर बच्चों को बाजू में देख एक हिचक हुई, कि कैसे मैं वो दोसे के टुकड़े को छोड़ दूँ। उनके सामने ये मैं कैसा उदाहरण पेश करूँगा ? (खाना अधूरा छोड़कर ) । पर फिर भी, जैसे ही मैं अपनी थाली अधूरी छोड़‌कर, हाथ धोने गया, बच्चों के हँसने को आवाज़ आयी ।

मैंने पलट के देखा तो दो कौंवे आए और उस दोसे के टुकड़े को मजे से उड़ा कर ले गए और अपने साथियों के साथ खाने लगे ।अब में निश्चिंत हुआ कि मेरी थाली अब ख़ाली हो चुकी थी कौओं को उनका खाना मिल गया था ।

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